Thursday, October 29, 2009

व्यथा

बहुत बार मन में आता है कि हिन्दी सिखाने के अतिरिक्त कुछ और भी ब्लाग पर लिखूं पर ब्लाग का नाम कुछ ऐसा है कि कुछ दूसरा उस पर सजता नहीं। पिछले कई सालों से अनेक लोग मुझसे पूछते हैं कि आखिर हम अपने बच्चों को हिन्दी क्यों पढ़ाएं। अब तो भारत में भी बच्चों को हिन्दी का कोई शौक नहीं। मेरा मन दुःखी होता है और यूँ ही शब्दों का रूप ले लेता है-


विदेश आने की
हम सबकी
एक कथा होती है
और उस कथा में
कहीं न कहीं
एक व्यथा होती है

देश छूटते ही हम पाते हैं
खुद को एकाकी और अनाथ
और शरण लेते हैं धर्म की
पकड़ लेते हैं उस भगवान को
कि बस तू ही है
जो अपना था और अपना है
खो देते हैं खुद को और अपनी आत्मा को भी
ढकेलते हैं आने वाली
हर पीढ़ी को धर्म की शरण में
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख या इसाई
बस यही एक पहचान बल देती है
बाकी सब दूर चला जाता है
मानव धर्म कोने में सिसकता है
मानवता रोती है
क्यों कि आत्मा से परमात्मा की यात्रा
सभी धर्मों का आधार है
और अपनी आत्मा को खो कर
किस परमात्मा को खोजने चले थे
इस पर भी
एक प्रश्न
अनसुना सा खड़ा दिखता है
चुपचाप,
मौन

और कभी
देश छूटते ही
हम उड़ते हैं
उन्मुक्त पंक्षी की तरह
शायद स्वतन्त्रता का अहसास
पहली बार हमें होता है
अपनी भाषा संस्कृति से परे
नये परिवेश को
आत्मसात करने में जुट जाते हैं
वही हमें बल देता है
मानव जीवन की माया नगरी में
माया तांडव करती है
महामाया
नाज़ुक हाथों से
वह हाला पिलाती है
जिसका हर एक जाम
आने वाली अनेक पीढ़ियों तक
ज़हर बन कर उतरता है
इसका अहसास
हमें खुद को नहीं
अगली पीढ़ियों को होता है

और कभी
हम संतुलन खोजते हैं
कुछ पाने के लिए
कुछ खोने को तैयार दिखते हैं
पर, क्या खोएं और क्या पाएं
इस में भी असमंजस है
क्यों कि
देश छूटते ही
एक हम का अहसास दम तोड़ देता है
और तब
पति की, पत्नी की और बच्चों की
खोने और पाने की
अपनी-अपनी
अलग दिशा और प्राथमिकता होती है
ऐसे में
केवल समय
सिखाता है
और दिखाता है
कभी-कभी
खोने और पाने के लिए
कुछ भी शेष नहीं होता

Thursday, October 8, 2009

छुट्टियों के बाद


आर्या और मम्मी का प्रिय खेल (ज़मीन पर चौक से चित्र बनाना)

गर्मी की छुट्टियाँ व्यस्त रहीं और समय कहाँ सरक गया पता ही नहीं चला। इस बीच अनेक लोग हमारे पन्ने पर आए। कुछ ने टिप्पणियाँ छोड़ीं और कुछ यूँ ही सरसरी निगाह डाल कर चल दिए। मैं ह्दय से आप सभी के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ।

गर्मियों में यहाँ-वहाँ की घुमाई के साथ-साथ बहुत से घरेलू काम भी किए गए। मंगोड़ी-बड़ी बनाने से ले कर अचार-पापड़ तक हमने यहाँ विदेश में बनाए। इस सबके पीछे उद्देश्य केवल यह था कि बच्चे वह माहौल देखें और अनुभव करें जो हमने बड़े होते समय भारत में किया था। एक सहज सुन्दर, दौड़-भाग से दूर आपस में होने का माहौल। मज़े कि बात यह कि बच्चे भी इन कार्य कलापों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं जैसे कोई विशेष आयोजन या पर्व हो।

कार के ऊपर सूखती मंगोड़ियाँ

13 सितम्बर से हिन्दी की कक्षाएँ पुनः आरम्भ हुईं। इस बार हमारी कक्षा में एक बच्चा तमिल भाषी भी है। मेरा मन उन सभी माता-पिता के प्रति आदर से भर उठता है जो हिन्दी अपनी भाषा न होते हुए भी उसके प्रति आदर भाव रखते हैं तथा उसे सीखने के लिए अपने बच्चों को प्रेरित करते हैं।

पिछली कक्षा में सभी बच्चे आए देख मेरा मन उत्साह से भरा हुआ था। हमने 'ओ' की मात्रा वाले सभी शब्दों के अर्थों का अभ्यास किया तथा 'ओ' की मात्रा पर आधारित लोकेश और खरगोश पाठ को पढ़ा। कुछ गाने गाए। रेलगाड़ी-रेलगाड़ी बच्चों का अभी तक का सबसे प्रिय गाना है।


'नवरात्रि का त्यौहार' पाठ के कठिन शब्दों पर फिर से कार्य किया गया। हाथी और दर्जी के बेटे की कहानी करनी का फल सुनी गयी। इसके साथ ही आ गई विदा की घड़ी। इन्हीं शब्दों के साथ आज आपसे भी विदा लूंगी- आगे आते रहने के वादे के साथ।