बहुत बार मन में आता है कि हिन्दी सिखाने के अतिरिक्त कुछ और भी ब्लाग पर लिखूं पर ब्लाग का नाम कुछ ऐसा है कि कुछ दूसरा उस पर सजता नहीं। पिछले कई सालों से अनेक लोग मुझसे पूछते हैं कि आखिर हम अपने बच्चों को हिन्दी क्यों पढ़ाएं। अब तो भारत में भी बच्चों को हिन्दी का कोई शौक नहीं। मेरा मन दुःखी होता है और यूँ ही शब्दों का रूप ले लेता है-
विदेश आने की
हम सबकी
एक कथा होती है
और उस कथा में
कहीं न कहीं
एक व्यथा होती है
देश छूटते ही हम पाते हैं
खुद को एकाकी और अनाथ
और शरण लेते हैं धर्म की
पकड़ लेते हैं उस भगवान को
कि बस तू ही है
जो अपना था और अपना है
खो देते हैं खुद को और अपनी आत्मा को भी
ढकेलते हैं आने वाली
हर पीढ़ी को धर्म की शरण में
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख या इसाई
बस यही एक पहचान बल देती है
बाकी सब दूर चला जाता है
मानव धर्म कोने में सिसकता है
मानवता रोती है
क्यों कि आत्मा से परमात्मा की यात्रा
सभी धर्मों का आधार है
और अपनी आत्मा को खो कर
किस परमात्मा को खोजने चले थे
इस पर भी
एक प्रश्न
अनसुना सा खड़ा दिखता है
चुपचाप,
मौन
और कभी
देश छूटते ही
हम उड़ते हैं
उन्मुक्त पंक्षी की तरह
शायद स्वतन्त्रता का अहसास
पहली बार हमें होता है
अपनी भाषा संस्कृति से परे
नये परिवेश को
आत्मसात करने में जुट जाते हैं
वही हमें बल देता है
मानव जीवन की माया नगरी में
माया तांडव करती है
महामाया
नाज़ुक हाथों से
वह हाला पिलाती है
जिसका हर एक जाम
आने वाली अनेक पीढ़ियों तक
ज़हर बन कर उतरता है
इसका अहसास
हमें खुद को नहीं
अगली पीढ़ियों को होता है
और कभी
हम संतुलन खोजते हैं
कुछ पाने के लिए
कुछ खोने को तैयार दिखते हैं
पर, क्या खोएं और क्या पाएं
इस में भी असमंजस है
क्यों कि
देश छूटते ही
एक हम का अहसास दम तोड़ देता है
और तब
पति की, पत्नी की और बच्चों की
खोने और पाने की
अपनी-अपनी
अलग दिशा और प्राथमिकता होती है
ऐसे में
केवल समय
सिखाता है
और दिखाता है
कभी-कभी
खोने और पाने के लिए
कुछ भी शेष नहीं होता