Thursday, October 29, 2009

व्यथा

बहुत बार मन में आता है कि हिन्दी सिखाने के अतिरिक्त कुछ और भी ब्लाग पर लिखूं पर ब्लाग का नाम कुछ ऐसा है कि कुछ दूसरा उस पर सजता नहीं। पिछले कई सालों से अनेक लोग मुझसे पूछते हैं कि आखिर हम अपने बच्चों को हिन्दी क्यों पढ़ाएं। अब तो भारत में भी बच्चों को हिन्दी का कोई शौक नहीं। मेरा मन दुःखी होता है और यूँ ही शब्दों का रूप ले लेता है-


विदेश आने की
हम सबकी
एक कथा होती है
और उस कथा में
कहीं न कहीं
एक व्यथा होती है

देश छूटते ही हम पाते हैं
खुद को एकाकी और अनाथ
और शरण लेते हैं धर्म की
पकड़ लेते हैं उस भगवान को
कि बस तू ही है
जो अपना था और अपना है
खो देते हैं खुद को और अपनी आत्मा को भी
ढकेलते हैं आने वाली
हर पीढ़ी को धर्म की शरण में
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख या इसाई
बस यही एक पहचान बल देती है
बाकी सब दूर चला जाता है
मानव धर्म कोने में सिसकता है
मानवता रोती है
क्यों कि आत्मा से परमात्मा की यात्रा
सभी धर्मों का आधार है
और अपनी आत्मा को खो कर
किस परमात्मा को खोजने चले थे
इस पर भी
एक प्रश्न
अनसुना सा खड़ा दिखता है
चुपचाप,
मौन

और कभी
देश छूटते ही
हम उड़ते हैं
उन्मुक्त पंक्षी की तरह
शायद स्वतन्त्रता का अहसास
पहली बार हमें होता है
अपनी भाषा संस्कृति से परे
नये परिवेश को
आत्मसात करने में जुट जाते हैं
वही हमें बल देता है
मानव जीवन की माया नगरी में
माया तांडव करती है
महामाया
नाज़ुक हाथों से
वह हाला पिलाती है
जिसका हर एक जाम
आने वाली अनेक पीढ़ियों तक
ज़हर बन कर उतरता है
इसका अहसास
हमें खुद को नहीं
अगली पीढ़ियों को होता है

और कभी
हम संतुलन खोजते हैं
कुछ पाने के लिए
कुछ खोने को तैयार दिखते हैं
पर, क्या खोएं और क्या पाएं
इस में भी असमंजस है
क्यों कि
देश छूटते ही
एक हम का अहसास दम तोड़ देता है
और तब
पति की, पत्नी की और बच्चों की
खोने और पाने की
अपनी-अपनी
अलग दिशा और प्राथमिकता होती है
ऐसे में
केवल समय
सिखाता है
और दिखाता है
कभी-कभी
खोने और पाने के लिए
कुछ भी शेष नहीं होता

Thursday, October 8, 2009

छुट्टियों के बाद


आर्या और मम्मी का प्रिय खेल (ज़मीन पर चौक से चित्र बनाना)

गर्मी की छुट्टियाँ व्यस्त रहीं और समय कहाँ सरक गया पता ही नहीं चला। इस बीच अनेक लोग हमारे पन्ने पर आए। कुछ ने टिप्पणियाँ छोड़ीं और कुछ यूँ ही सरसरी निगाह डाल कर चल दिए। मैं ह्दय से आप सभी के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ।

गर्मियों में यहाँ-वहाँ की घुमाई के साथ-साथ बहुत से घरेलू काम भी किए गए। मंगोड़ी-बड़ी बनाने से ले कर अचार-पापड़ तक हमने यहाँ विदेश में बनाए। इस सबके पीछे उद्देश्य केवल यह था कि बच्चे वह माहौल देखें और अनुभव करें जो हमने बड़े होते समय भारत में किया था। एक सहज सुन्दर, दौड़-भाग से दूर आपस में होने का माहौल। मज़े कि बात यह कि बच्चे भी इन कार्य कलापों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं जैसे कोई विशेष आयोजन या पर्व हो।

कार के ऊपर सूखती मंगोड़ियाँ

13 सितम्बर से हिन्दी की कक्षाएँ पुनः आरम्भ हुईं। इस बार हमारी कक्षा में एक बच्चा तमिल भाषी भी है। मेरा मन उन सभी माता-पिता के प्रति आदर से भर उठता है जो हिन्दी अपनी भाषा न होते हुए भी उसके प्रति आदर भाव रखते हैं तथा उसे सीखने के लिए अपने बच्चों को प्रेरित करते हैं।

पिछली कक्षा में सभी बच्चे आए देख मेरा मन उत्साह से भरा हुआ था। हमने 'ओ' की मात्रा वाले सभी शब्दों के अर्थों का अभ्यास किया तथा 'ओ' की मात्रा पर आधारित लोकेश और खरगोश पाठ को पढ़ा। कुछ गाने गाए। रेलगाड़ी-रेलगाड़ी बच्चों का अभी तक का सबसे प्रिय गाना है।


'नवरात्रि का त्यौहार' पाठ के कठिन शब्दों पर फिर से कार्य किया गया। हाथी और दर्जी के बेटे की कहानी करनी का फल सुनी गयी। इसके साथ ही आ गई विदा की घड़ी। इन्हीं शब्दों के साथ आज आपसे भी विदा लूंगी- आगे आते रहने के वादे के साथ।

Friday, July 3, 2009

अन्तिम कक्षा २००८-09


पिछले रविवार हमारे इस सत्र की अन्तिम कक्षा थी। सभी बच्चों में उत्साह था। आज नाटक “नादान कौए” की प्रस्तुति भी थी।

सबसे पहले बच्चों ने पिछले दो हफ्ते के गृहकार्य को बड़े गर्व के साथ दिखाया। गर्मी की छुट्टियों में क्या काम करते हुए अपने हिन्दी ज्ञान को जीवन्त रखना है इस पर भी चर्चा हुयी। इस हफ्ते ऐ की मात्रा को आगे बढ़ाते हुए “कैलाश की बैलगाड़ी” पाठ का वितरण हुआ।

इससे पहले कि अभिभावक आने लगें एक बार अपनी प्रस्तुति का पूर्वाभ्यास किया गया। सभी बच्चों की तैयारी देख मेरा मन पूर्णतया संतुष्ट और गद्-गद् था। जल्दी ही हमलोगों ने मिल कर सब आने वालों के लिए कुर्सियाँ लगायीं और कुछ जलपान का आयोजन भी किया।

सभी अभिभावकों के आ जाने के बाद हमारी प्रस्तुति आरम्भ हुयी। सबसे पहले सरस्वति वंदना से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ, फिर गर्मियों के मौसम को देखते हुए एक गीत- “आम फलों का राजा है” गाया गया। इसके बाद बड़े दृढ़ विश्वास और शालीनता के साथ बच्चों ने नाटक “नादान कौए” की प्रस्तुति दी। नाटक के बाद दो और गीत- “बिल्ली रानी” तथा “हम बहादुर बच्चे हैं” की प्रस्तुति के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ। हर प्रस्तुति के बाद तालियों की गड़गड़ाहट बच्चों के आत्मविश्वास को बढ़ाती गयी और मेरा मन संतुष्टि, तथा बच्चों और उनके अभिभावकों के हिन्दी के प्रति इस प्रयास के लिए विनम्रता से झुकता गया। सभी बच्चों ने अपने सुन्दर प्रयास एवं प्रस्तुति के लिए प्रमाण पत्र तथा कुछ छोटे पुरूस्कार पाए।


कार्यक्रम के बाद सभी अभिभावकों के साथ एक गोष्ठी हुयी जिसमें इस साल के कार्य का पुनरावलोकन किया गया, साथ ही अगले सत्र के लिए विचारों का आदान प्रदान हुआ। मैं अपने सभी अभिभावकों एवं इस ब्लाग पर आने वाले सभी पाठकों को धन्यवाद कहना चाहूंगी जो हमें इस कार्य के लिए उत्साह एवं ऊर्जा देते हैं। इसके साथ ही विशेषरूप से एक बच्चे की दादी जी को शुक्रिया कहना चाहूंगी जो दिल्ली से एक दिन पहले ही आयी थीं और अपनी लम्बी यात्रा की थकान, जेट लेग की चिन्ता से परे बड़े उत्साह के साथ हमारे कार्यक्रम में सम्मिलित हुयीं, हमारी पीठ ठोंकी और बच्चों को पढ़ाने में आने वाली किसी भी सामिग्री को भारत से भेजने के लिए पूर्ण सहायता का आश्वासन भी दिया। बड़ों का आशीर्वाद सिर पर हो तो यात्रा स्वतः ही सुखद एवं सरल हो जाती है- इस विचार के साथ आज यहीं विराम देती हूँ, अपनी अगली पोस्ट के आने तक.... नमस्कार।

Saturday, June 20, 2009

गर्मी की छुट्टियाँ

भारत में जहाँ गर्मी की छुट्टियाँ समाप्त होने को हैं वहीं यहाँ यू. एस. में गर्मी की छुट्टियाँ अब शुरू हुयी हैं। जहाँ घर बच्चों की चहल-पहल से गुंजायमान है वहीं हमारा प्यारा ब्लाग सुषुप्तावस्था में चला गया है, फिर भी समय निकालते हुए चलते जाना है-

पिछले हफ्ते हमारी हिन्दी कक्षा में कुछ बच्चों के भारत जाने तथा एक छात्रा के देर से हिन्दी क्लास तक पहुँचने के कारण, कक्षा की शुरूआत कुछ सूनी सी लगी। माँ सरस्वती की वंदना के बाद गृहकार्य दिखाने की जिज्ञासा सभी में थी। मैं आश्चर्य चकित थी एक लड़की के काम को देख, जिसने एक पूरा पन्ना भर के हिन्दी लिखी थी। इस छात्रा को हिन्दी सीखते अभी केवल तीन ही महिने हुए हैं साथ ही बताना चाहूँगी कि इस छात्रा की माँ तो भारतीय पर पिता श्वेत अमेरिकन हैं। मैंने मन ही मन नमन किया उस माँ को और उसकी बेटी के इस अनमोल प्रयास को। ईश्वर इनकी हिन्दी के प्रति जोड़ी गयी सभी अभिलाषाएं पूरी करे।

पिछले हफ्ते “ऐ” से आरम्भ होने वाले शब्दों को एक बार फिर दोहराया गया। लगभग 30 शब्दों के अर्थ पूछे और सुनें गए तथा बच्चों ने मौखिक रूप से उन शब्दों के वाक्य बनाए। बच्चों में एक होड़ थी एक दूसरे से अच्छा वाक्य बनाने की। इन्हीं शब्दों पर आधारित मेरे द्वारा बनाया गया पाठ “रमा और मामा जी” पढ़ा गया।

चित्र में रंग भरा आर्या ने

और हम कैसे भूलते अपनी लम्बी सी रेलगाड़ी को। रेलगाड़ी चली और खूब चली। हमारे उन सभी पाठकों का ह्दय से धन्यवाद जिन्होंने पिछले हफ्ते हमारी इस रेलगाड़ी पर यात्रा की और टिप्पणियाँ छोड़ीं। आपकी टिप्पणियाँ हमारा उत्साह बढ़ाने के लिए इंजन में ईंधन की तरह हैं।

नाटक “नादान कौए” का अभ्यास किया गया। अगले सप्ताह फादर्स डे की छुट्टी रहेगी और उसके पश्चात हमारी इस वर्ष गर्मी की छुट्टियों से पहले की अन्तिम कक्षा लगेगी। इस अन्तिम कक्षा में सभी बच्चे अपने माता पिता के समक्ष कुछ हिन्दी गानों और नाटक का प्रदर्शन करेंगे। इसलिए कक्षा के अन्त में सब बच्चों के साथ मिल जुल कर यह निर्णय लिया गया कि क्या और किस क्रम में प्रस्तुत किया जाए।
इसके बाद एक बार फिर आ गई विदा की घड़ी।

धन्यवाद बाय-बाय नमस्ते
फिर मिलेंगे अगले हफ्ते

इसे गाते-गाते हम सबने एक दूसरे से विदा ली, पर इस बार अगले से अगले हफ्ते तक के लिए ..........

Monday, June 8, 2009

रेलगाड़ी-रेलगाड़ी

चित्र- आर्या


पिछले हफ्ते इस गाने को हम लोगों ने अपनी हिन्दी की कक्षा में सीखा। हम लोगों ने रेलगाड़ी बनायी और लम्बी कतार में दौड़ते हुए इस गाने को कई बार गाया और सभी बच्चों को बहुत आनन्द आया।


रेलगाड़ी-रेलगाड़ी,
लम्बी सी रेलगाड़ी।

बच्चों मेरे पीछे आओ,
लम्बी सी कतार बनाओ।

गार्ड झंडी दिखलाएगा,
सिगनल डाउन हो जाएगा।

तब सीटी मारेगा इंजन,
छुक-छुक-छुक-छुक करेगा इंजन।

झट पीछे-पीछे आना,
गाड़ी के डिब्बे बनना।

हल्ला-गुल्ला सरपट दौड़,
बच्चों तब होगा एक शोर।

देखो-देखो रेल है आई,
सबको स्टेशन पर लाई।

बच्चों खत्म हुआ यह खेल,
आओ बनाएं फिर से रेल।

रचना- रानी पात्रिक

Thursday, June 4, 2009

३१ मई, २००९ की कक्षा


पिछले हफ्ते हमारी हिन्दी की कक्षा अपने नियत दिन, नियत समय पर आरम्भ हुयी। पति के शहर में ना होते हुए भी मेरे बच्चों के साथ और सहयोग ने मुझे सारी चिन्ताओं से दूर हिन्दी कक्षा के लिए तैयार कर दिया था।

हर बार की तरह इस बार भी कक्षा सरस्वती वंदना से आरम्भ हुयी। इसके पहले कुछ और करते बच्चों की लम्बी लाइन हमें गृह कार्य दिखाने के लिए उत्सुक थी। हंसी मज़ाक के साथ हम उनकी त्रुटियों को समझाते और सुधारते रहे।

इसके पश्चात आओ गाएं के क्रम में हमने “वसंत है आता” तथा “रेलगाड़ी-रेलगाड़ी, लम्बी सी रेलगाड़ी” गानों का भरपूर आनन्द उठाया।

फिर आई नाटक की बारी। इस बार सभी बच्चों ने न केवल “नादान कौवे” नाटक का अभ्यास किया अपितु हास्य नाटिका की गंम्भीरता को भी समझा।

इस बार ए की मात्रा का अंतिम दिन था इसलिए एक बार पुनः अब तक सीखी गयी सभी मात्राओं का पुनर्भ्यास किया गया। इस कड़ी में एक बात पर विषेश बल दिया गया कि “ग़लती करने से ना डरो, दूसरों की नकल बिना समझे मत करो।” बच्चों ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने मात्रा ज्ञान का परिचय दिया। कुछ एक दो त्रुटियों को छोड़ कर सभी का काम सराहनीय रहा।

आज हमारे हिन्दी परिवार के दो बच्चे गर्मी की छुट्टियाँ होने से पहले अन्तिम बार कक्षा में आए। उनसे बिछुड़ते हुए मन भारी था पर साथ ही वह बच्चे भारत जा रहे थे इसलिए उनको विदा करते हुए मन में एक उत्साह भी था। एक संतोष सा था कि यह बच्चे जो भी आज तक सीखते रहे उस हिन्दी ज्ञान का प्रयोग वह भारत में कर सकेंगे तथा बहुत कुछ और भारत से सीख कर आएंगे, हम सबके साथ बांटने, हमारी हिन्दी कक्षा में।

कक्षा समाप्त होने पर बच्चों ने सभी अभिभावकों के समक्ष वसंत है आता गाने की सुन्दर प्रस्तुति की और हमने एक दूसरे से विदा ली अगले हफ्ते तक के लिए।

Wednesday, June 3, 2009

ये उम्र और लंगड़ी



आज एक पूरा हफ्ता निकल गया कोई ब्लाग नहीं लिखा गया। तो प्रश्न है कि “आखिर क्यों नहीं लिखा गया?”
अकस्मात् बस एक ही उत्तर दिमाग में कौंधता है और वह यह कि- “जी लंगड़ी खेल रहे थे।“ तो ये लिजिए एक और प्रश्न सामने आ खड़ा होता है- “ये उम्र और लंगड़ी?”

सच! कितना मज़ा आता था बचपन में लंगड़ी खेलने का। छठी-सातवीं कक्षा। स्कूल समाप्त होने के बाद, स्कूल के ही सामने चौरसिया जी के घर पर जमे लंगड़ी खेल में शामिल होने से नहीं चूकते थे। पाँच मिनट के लिए ही सही। गलियारे से लम्बे खिंचे घर जहाँ सूरज कभी चुप-छुप के ही झांकता होगा। अंधियारी, तरावट भरी कोठरियों में एक दूसरे के पीछे दौड़ती हम सभी दोस्तें भूतों की तरह लंगड़ी खेलते थे। थोड़े समय में ज्यादा आनन्द लूटने की वह उम्र कुछ और ही होती है।

पर यहाँ विदेश में लंगड़ी?

यहाँ विदेश में घर के अन्दर-बाहर सभी काम निपटाते सुबह से शाम कब हो जाती है पता ही नहीं चलता। कुछ काम पति संभालता है तो कुछ काम पत्नी। ऐसे में यदि दोनों में से एक भी शहर से बाहर हो तो भाई टांगे तो दो ही हैं ना। आधा काम एक टांग करती है तो आधा दूसरी, और आप मानें या ना मानें अनजाने में ही इस आपाधापी में बच्चों को उठाए-लटकाए हम लंगड़ी खेलते नज़र आते हैं। अब ये हम पर है कि इस लंगड़ी का आनन्द हम लें या न लें। सच बात तो यह है कि जीवन की संध्या हमें सचमुच की लंगड़ी खिलाने लगे इससे पहले हम इस लंगड़ी का भी भरपूर आनन्द उठाएँ इसी में जीवन का असली आनन्द है।

पर इस सबके बावजूद हिन्दी की कक्षा अपने नियत समय पर रविवार के दिन पूरे उत्साह के साथ हुयी। उसके बारे में अगली बार....

नमस्कार।

Wednesday, May 27, 2009

वसंत है आता



दो हफ्ते पहले हमने अपनी हिन्दी कक्षा में एक गाना सिखाया था जो इस प्रकार है-

(गाने को पढ़ने से पहले बताना चाहूँगी कि हमारे यहाँ सितम्बर से जो वर्षा की झड़ी लगती है वह मई-जून तक चलती है। यह पहला हफ्ता है जब इस वर्ष सूरज पूरे हफ्ते चमक रहा है। पेड़ फूलों से लदे हुए हैं। चिड़ियाँ, तितलियाँ, पशु-पक्षी और हम सब आनन्दित हैं। स्कूलों में गर्मी की छुट्टियाँ कोई दो हफ्ते दूर हैं। बच्चे जब यह गाना गाते हैं तो बहुत ही मधुर लगता है। काश मुझे mp3 ब्लाग पर लगाना आता तो इस गाने का आनन्द दुगुना हो जाता। खैर, आज ऐसे ही...)

रंग-बिरंगे फूल खिलाता, सूरज चमकाता
वसंत है आता, वसंत है आता।

धूप खिलाता, चिड़ियाँ चहकाता।
हर मन को हर्षाता, बारिश दूर भगाता-
बोलो-बोलो क्या आता?
वसंत है आता, वसंत है आता।

तितलियाँ उड़ाता,
कीट-पतंगे, मधुमक्खी, सबको बौराता।
गर्मी की छुट्टियाँ है लाता-
बोलो-बोलो क्या आता?
वसंत है आता, वसंत है आता।

(रचना- रानी पात्रिक)

Tuesday, May 26, 2009

कल की पहेली का उत्तर

आज का दिन बहुत व्यस्त रहा पर पहेली का उत्तर तो देने आना ही था।

तो भाई उत्तर है- फ्रिस्बी (Frisbee)

बाकी कल- नमस्कार

Monday, May 25, 2009

पहेली


इस बार उत्तर नहीं देती हूँ। बाद में जोड़ दूंगी-

उड़न तश्तरी सी उड़ती हूँ,
बिन चाभी बिन इंजन।
सबका मन बहलाती फिरती,
स्टेशन से स्टेशन।

बूझो तो जानूं!!!

(रचनाकार- रानी पात्रिक)


उत्तर- फ्रिस्बी,Frisbee (यह उत्तर बाद में जोड़ा गया है)

Sunday, May 24, 2009

२४ मई २००९ कृष्णा तुलसी

आज हिन्दी कक्षा का दिन हमारी सरस्वती प्रार्थना से आरम्भ हुआ-

जय सरस्वती देवी नमो वरदे
जय विघ्न विमोचन बहु वरदे

कक्षा के आरम्भ में बोलचाल के क्रम में हमने “कल क्या किया तथा आज क्या किया” विषय पर बातचीत की। बच्चों ने बढ़-चढ़ कर अपनी बातें हिन्दी में सामने रखने का प्रयत्न किया, विषय थे --

-समुद्र किनारे गये
-कैम्पिंग गये
-हाइकिंग गये
-पौधों की नर्सरी गये

कृष्णा तुलसी


एक बच्चे ने हमें बताया कि उसका परिवार यहाँ फारमर्स मार्केट से कृष्णा तुलसी (काली तुलसी) खरीद कर लाया। हमारे लिए तो यह जैसे जंगल में मंगल जैसी खबर थी इसलिए मैंने भी अपने कई मित्र परिवारों में यह खबर बांटी। अब लगता है हम सभी अगले हफ्ते कृष्णा तुलसी खरीदने फारमर्स मार्केट जाएंगे।

बात ही बात में बीज की बात हुयी और हमने अपनी लिखी किताब “आओ बोएं बीज” पढ़ी। बच्चो ने हर लाइन को दोहराया। अनेक नये शब्द सीखे गये। खुरपी, हज़ारा विशेष रहे।

लो! फिर आ गई नाटक की बारी। लोमड़ी और गिलहरी आज के दिन अनुपस्थित थे इसलिए उनकी कमी बहुत खली । फिर भी बच्चों ने खूब मन लगा कर अभ्यास किया और बहुत मज़ा लिया। उनका मन तो भरता ही नहीं था तब इस शर्त पर आगे बढ़े कि यदि कक्षा के अन्त में समय बचा तो फिर से एक बार और अभ्यास किया जाएगा।

पिछले हफ्ते का गीत “वसंत है आता “ बार-बार गाया गया और एक नया गीत सीखा गया-
“रेलगाड़ी-रेलगाड़ी, लम्बी सी रेलगाड़ी।“

गृह कार्य दिखाने का लिए एक बार फिर होड़ थी। अब बच्चे अपने आप लिखने का जोश दिखा रहे हैं। सभी की लिखावटें बहुत ही सुन्दर और प्रयास प्रसंशनीय है।


"रतन का रोमांचक दिन" कहानी का एक चित्र-


कक्षा के अन्त में पठन-पाठन के अन्तरगत हमनें ए की मात्रा वाली रतन की कहानी पढ़ी। इस कहानी में लगभग उन सभी शब्दों का प्रयोग किया गया है जिन्हें ए की मात्रा सिखाते समय बताया गया था। बच्चे बखूबी पढ़ रहे हैं।

और, अरे ये क्या? कक्षा का सारा समय तो समाप्त हो गया। जल्दी-जल्दी लिखने के लिए वाला काम बांटा गया, और-
“धन्यवाद बॉय-बॉय नमस्ते, फिर मिलेंगे अगले हफ्ते” की धुन के साथ क्लास समाप्त हुआ।

नमस्कार।

Saturday, May 23, 2009

पहेलियाँ




समय-समय पर इसमें और पहेलियाँ जुड़ती रहेंगी।


1. साथ-साथ मैं चलती हूँ,
पर पकड़ नहीं सकते हो तुम।
अंधियारा छाते ही देखो,
गायब होती मैं गुमसुम।

-परछाईं
(रचनाकार- रानी पात्रिक)

Friday, May 22, 2009

बहादुर बच्चे


बच्चों में गृह कार्य दिखाने का जोश सदा रहता है। मुझे पता है इसके पीछे उनके अभिभावकों की तत्परता और सहयोग ही है जिसके लिए वो प्रशंसा के पात्र हैं वरना इस हिन्दी विहीन वातावरण में बच्चे कैसे हिन्दी में अपनी रूचि बनाए रख सकते हैं। । मेरे ह्रदय में उनके लिए विषेश स्थान है।


एक कविता बच्चों में हिन्दी के प्रति जोश जगाने के लिए-


हम बहादुर बच्चे हैं, नहीं किसी से डरते हैं।
हर दिन अपने सारे काम, जल्दी-जल्दी करते हैं।
कोई बोले या ना बोले, हम तो याद रखते हैं।
सुबह शाम हम हिन्दी का, अपना काम करते हैं।

रचना - रानी पात्रिक

Thursday, May 21, 2009

हमारी कक्षा, १६, मई २००९


रविवार हमारा हिन्दी क्लास का दिन है। बहुत दिनों बाद आज सूरज निकला था। मदर्स डे की छुट्टी के बाद आज सभी बच्चों में उत्साह था।

पहले हमने सरस्वती वंदना कर के अपनी विनम्र प्रार्थना उस परमपिता के श्री चरणों में रक्खी कि वह हमें हिन्दी सीखने और सिखाने का पथ प्रशस्त करें और फिर रूपहले धूप भरे दिन को मनाने के लिए वसंत का नया गाना गाया- रंग-बिरंगे फूल खिलाता
सूरज चमकाता, वसंत है आता

इसके बाद, हमने बच्चों में अति लोकप्रिय नाटक "नादान कौए" का अभ्यास किया। बच्चों में संवादों को याद करने तथा उनको बोलने की क्षमता देख कर मैं दंग थी। भावाभिव्यक्ति पर अभी और काम करना होगा।

पिछली हितोपदेश की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने ब्राह्मण और नाविक की "आदर्श शिक्षा" कहानी सुनीं। कहानी आधी होते-होते एक बच्चे को लगा कि वह कहानी सुनी हुयी है और उसने अपने टूटे-फूटे वाक्यों से बड़ी बहादुरी से बाकी की कहानी सुनाई। मैं उसे सराहती देखती-सुनती रही। एक नयी आशा का उदय हुआ कि शायद अगले वर्ष तक यह बच्चे ही कक्षा में कहानियाँ सुनाया करेंगे।

हर बार की तरह बच्चों में गृह-कार्य दिखाने के लिए उत्साह था। बच्चों को सराहने का समय। बच्चों में जोश भरने का समय।

ए की मात्रा वाले शब्दों और उनके अर्थों को हमने दुबारा जाना।

कक्षा के अन्त में एक पहेली-
साथ-साथ मैं चलती हूँ, पर पकड़ नहीं सकते हो तुम।
अंधियारा छाते ही देखो, गायब होती मैं गुमसुम।

Saturday, May 16, 2009

यू.एस.ए. में हिन्दी अक्षर

विदेश में हिन्दी सीखना और सिखाना, भारत में अंग्रेज़ी सीखने से कहीं अधिक कठिन होता है। भारत में हर जगह अंग्रेजी के बोर्ड, किताबें, समाचार पत्र आदि उपलब्ध होते हैं। चेतना आते ही बच्चा अंग्रेजी के अक्षर अपने आसपास देखने लगता है जब कि यहाँ विदेशों में हिन्दी का कोई माहौल ही नहीं होता। हिन्दी के अक्षर कहीं दिखते ही नहीं ।

एक दिन मैं एक प्रदर्शिनी देखने गयी। उस प्रदर्शनी में एक बड़ा सा पंडाल विभिन्न प्रकार के डायनासॉर का भी था। मैं उस पंडाल में घुसने ही वाली थी कि तभी मेरी दृष्टि प्रवेश द्वार के पास रक्खे कुछ लकड़ी के बक्सों पर पड़ी। उन पर हिन्दी के अक्षर लिखे हुए थे। कहीं न दिखने वाले हिन्दी के अक्षर इतने अपने लगे कि मैं डायनसॉर भूल कर अपने बच्चों को वो लकड़ी के बक्से दिखाने लगी। बच्चे भी उत्साहित हो उन अक्षरों को पढ़ने लगे। हमारे परिवार को बक्सों के पास देख कुछ और लोग उत्सुकता वश आए। कुछ लोग छोटे बच्चों को एक अजनबी भाषा पढ़ते देख आनन्द लेने लगे। उस छोटी सी भीड़ को देख कुछ और लोगों ने उत्सुकता वश अपने सिर उस भीड़ में घुसाए और देखते ही देखते वह छोटी सी भीड़ बड़ी होने लगी। मैं आनन्दित हो रही थी अपने बच्चों को देख जो बड़े गर्व के साथ लोगों को पढ़-पढ़ बता रहे थे कि उन बक्सों पर क्या लिखा था।

आप भी उत्सुक होंगे कि आखिर उन बक्सों पर ऐसा क्या विशेष लिखा था। उन पर लिखा था- भारत की स्वादिष्ट दार्जिलिंग चाय।

इतना अवश्य है- हमारा हिन्दी के प्रति उत्साह दूसरों में भी कहीं न कहीं उत्सुकता अवश्य जगाता है।

Tuesday, May 12, 2009

अन्तिम फ़ैसला

यह पोस्ट पिछली पोस्ट का हिस्सा है इसलिए इस पोस्ट में छिपे भाव को समझने के लिए पिछली पोस्ट अवश्य पढ़े।

मेरा दुःखी मन पार्क में अब और रूकने को तैयार नहीं था। इसलिए मैं सामने स्थित एक पब्लिक लाइब्रेरी में चली गयी। मुझे भारतीय वस्त्रों में देख एक लड़की मेरी तरफ आकर्षित हुयी। देखने में तो वह भारतीय नहीं लगती थी पर न जाने कितनी ही बातें वह मुझसे भारत के बारे में करती रही। आखिरकार मुझसे पूछे बिना रहा नहीं गया कि आखिर वह भारत के बारे में इतना कैसे जानती है। तब उसने बताया कि उसके पिता भारतीय (मुम्बई से) हैं और उसकी माँ ग्रीक। फिर यकायक उसने मुझसे पूछा कि मैं अपने बेटे को हिन्दी सिखा रही हूँ या नहीं। उसने अनजाने ही मेरी दुःखती रग पर हाथ रखा था। मेरा मन जो पहले ही भरा हुआ था अपने को रोक न सका और मैंने कुछ पल पहले बीती सारी घटना उससे कह सुनाई और यह भी बताया कि अब आगे मुझे अपने बेटे को हिन्दी सिखाने में कोई रूचि नहीं है।

वह बड़े ध्यान से मेरी सारी बात सुनती रही फिर बड़े अपनेपन से मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर बोली- “मैं तुम्हारा दुःख समझ सकती हूँ पर हिन्दी न सिखाने की गलती कभी ना करना। मेरे माता-पिता ने मुझे अपनी-अपनी भाषाएं नहीं सिखाईं जिसके कारण सारे पारिवारिक आयोजनों का हिस्सा हो कर भी मैं स्वयं को वहाँ एक अजनबी सा महसूस करती थी। वो लोग क्या बोलते और क्या हंसी-मज़ाक किया करते थे मैं कभी समझ ही नहीं सकी। मुझे जन्म तो मिला पर परिवार की अनुभूति कभी हुई ही नहीं।“

उसकी बातों से मैं सहम गई। हिन्दी न सिखाने के प्रति लिया गया मेरा फैसला अपनी सच्चाई का विभत्स रूप लिए सामने खड़ा दिखाई दिया। मैंने उसकी आँखों में देखा। उसकी हिन्दी न जानने की पीड़ा मेरी आज की घटना से मिली वेदना से कहीं अधिक थी। मैंने बिना हिन्दी सिखाए अपने बच्चों को भी उस लड़की की जगह खड़े पाया। वह लड़की ईश्वर द्वारा भेजा हुआ एक फ़रिशता सी लगी जिसने मुझे गलत राह पर चलते ही मुझे सम्हाल लिया था। मेरे दुःख के बादलों से आई बदली ने ऐसी बरसात की जिससे मेरी सारी पीड़ा धुल गयी। एक नया सूरज चमक रहा था। एक नया उत्साह था और इतना साफ था- “चाहें जितनी बाधाएं आएं हमें अपने बेटे को हिन्दी सिखाना ही है।“

Monday, May 11, 2009

एक दुःखी दिन

आपकी प्रतीक्षा के लिए धन्यवाद.....
तो मैं यहाँ थी....
मेरा बेटा, जो अब तक दो साल का हो चुका था, हिन्दी अच्छी तरह समझ सकता था । अंग्रेजी की उसे अच्छी समझ नहीं थी। एक दिन मैं उसे एक पार्क में ले कर गई जहाँ दो और अमेरिकन बच्चे बालू में खेल रहे थे। मेरा बेटा, अकेला बच्चा घर में, उस दिन दूसरे बच्चों को देख मचल उठा और ताली बजा-बजा कर कूदने लगा। उन श्वेत बच्चों को मेरे बेटे का कूदना कुछ अटपटा सा लगा और उन्होंने उससे अंग्रेजी में कुछ बात करना चाहा किन्तु अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने के कारण मेरा बेटा कुछ उत्तर न दे सका और अपनी ही धुन में कूदता रहा। वह अमेरिकन बच्चे भी छोटे ही थे। उन्हें पता नहीं क्या समझ आया। उन्होंने झल्ला कर मेरे बेटे पर दनादन बालू फेंकी। मेरा मासूम बेटा तड़प कर रो पड़ा। मेरे मातृत्व को यह बिलकुल बरदाश्त न हुआ। मैंने झट उसे गोदी में उठा सीने से लगा लिया। बेटे की वेदना असह्य थी। एक अपराध भाव था कि यदि मैंने उसे अंग्रेजी सिखाई होती तो उसे शायद आज यह दिन न देखना पड़ता। सोंचा, बहुत हो गयी हिन्दी। जब रहना यहीं है तो हिन्दी सिखाने का क्या औचित्य। हिन्दी के प्रति लिया गया यह मेरा एक और संकल्प था।
वह दिन यूँ ही वेदना के साथ नहीं कटा। आगे की बात फिर अगली बार लिखूंगी......

Thursday, May 7, 2009

एक संकल्प

मेरा बेटा अब दो वर्ष का था, और हिन्दी अच्छी तरह समझ सकता था। समझता था यही क्या कम था मेरे लिए। घर में एक मैं ही तो थी जो सारे समय उससे हिन्दी में बातें किया करती थी। शहर में नए थे इसलिए जान पहचान भी कुछ खास नहीं थी। कोई हिन्दी भाषी दोस्त नहीं थे। हमारे शहर में कोई भारतीय दुकानें या भारतीय रेस्टोरेन्ट भी नहीं थे। हिन्दी फिल्में देखना भी नहीं होता था। उस समय टी. वी. पर भी कोई भारतीय चैनल नहीं आता था। इन सबके बावजूद अपने बेटे को हिन्दी सिखाने की चाह कुछ ऐसी थी मानो एक बियाबान जंगल में एक माँ अकेले अपने बेटे का हाथ पकड़े किसी अनजान पथ पर चली जा रही हो। यह रास्ता कैसे और कहाँ ले जाएगा इसका न ही कोई पता था न परवाह। एक धुन सी थी। साथ था तो बस एक संकल्प और एक दृढ़ विश्वास। पर इस विश्वास को टूटते भी ज्यादा समय नहीं लगा.......

काश आज समय होता तो आज ही उस घटना को भी लिखती। समय जितना करा ले उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए ऐसा सोंच कर आज यहीं रूकती हूँ। जल्दी ही फिर लौटूंगी.........

Monday, May 4, 2009

सास से मिली सलाह

जब मेरा पहला बेटा पैदा हुआ तब मेरी सास ने, जो श्वेत अमेरिकन है, मुझे सलाह दी कि मैं अपने बेटे को हिन्दी अवश्य सिखाऊँ। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह स्वंम हिन्दी समझती नहीं फिर वह ऐसा क्यों चाहती हैं। तब उन्होने मुझे बताया कि उनकी नानी जो कनाडा के क्यूबेक प्रांत से थीं उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी। वह केवल फ्रैंच ही बोल समझ सकती थीं और भाषा के अभाव में उनका अपनी नानी के साथ कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं बन सका। अपने दिल के किसी कोने में वह उस रिश्ते की कमज़ोरी का दर्द छुपाए जी रही थीं। वह नहीं चाहती थीं कि भाषा के अभाव में, संवाद हीनता के कारण उनके पोते-पोतियाँ अपने नाना-नानी से और अपनी भारतीय जड़ों से जुड़ने से वंचित रह जाएं। उनकी पीड़ा को सुनने के बाद मैंने संकल्प लिया कि मैं अपने बच्चों को हरसंम्भव तरीके से हिन्दी अवश्य सिखाऊंगी किन्तु यह इतना सरल भी नहीं था।
अपने आगे की यात्रा फिर अगली बार.......

Friday, May 1, 2009

हिन्दी क्यों सिखाएँ

विदेशों में रहने वाले उत्तर भारतीय बहुत से परिवारों में एक यह प्रश्न उठते देखा है कि आखिर हम अपने बच्चों को हिन्दी क्यों सिखाएँ। वे माता पिता जो अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े और अपने परिवार और मित्रों के साथ अंग्रेज़ी बोलते हुए बड़े हुए उन्हें कभी-कभी हिन्दी सिखाने का महत्व समझ नहीं आता। मैं उन्हें दोष भी नहीं देती क्यों कि भारत में अंग्रेज़ी केवल भाषा का स्थान ही लेती है। संस्कृति हमारी फिर भी हिन्दुस्तानी ही रहती है। हिन्दी भाषा हिन्दुस्तानी (भारतीय) संस्कृति को सिखाने की दिशा में उठाया गया एक सशक्त कदम होता है।

यहाँ विदेशों में बच्चों को बड़े-छोटे का भाव, आदर और प्रेम का भाव सिखा पाना बड़ा कठिन होता है। यह हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। पाश्चात्य संस्कृति में इसका कोई विशेष महत्व नहीं। बच्चों के साथ उनके नाना-नानी या दादा-दादी भी अधिकतर नहीं होते जिससे वह अपने माता-पिता के साथ उनके आदर तथा प्रेम भाव को देख-सीख सकें। फिर यदि भाषा को देखें तो अंग्रेज़ी में केवल यू शब्द का प्रयोग बड़े छोटे सभी लोगों के लिए होता है। ऐसे में हिन्दी भाषा द्वारा बच्चों में भारतीय संस्कृति को सहज ही उतारा जा सकता है।

हिन्दी भाषा इतनी समृद्ध है जितनी कि भारतीय संस्कृति और यदि बच्चों को प्यार और जतन के साथ हिन्दी भाषा सिखाई जाए तो भारतीय संस्कृति स्वतः ही उनके चरित्र में उतरनी शुरु हो जाती है।

अगली बार अपने जीवन के कुछ अनुभव ले कर फिर आपसे बातचीत करने आऊँगी।

Tuesday, April 28, 2009

शुभारंभ

आज अपने इस पन्ने का आरम्भ मैं अपने तीनों बच्चों को धन्यवाद दे कर करना चाहूँगी जिन्होंने मुझे एक माँ ही नहीं बल्कि एक टीचर बनने का सुअवसर भी दिया। इसके साथ ही उन सभी अभिभावकों को अपना धन्यवाद दूँगी जिन्होंने मुझमें अपना विश्वास दिखाया और अपने बच्चों में हिन्दी के प्रति प्यार बढ़ाने का एक अद्भुद कदम उठाया।

१९९२ में जब मैं विवाहित हो कर यू एस ए आई तब सब कुछ पीछे छूट जाने के बाद भी मेरी भाषा और संस्कृति अवश्य मेरे साथ सात समुन्दर पार आई और इस विदेशी परिवेश में मेरी अन्तरंग सहेली बन कर अब तक मेरा साथ निभाती आयी है। पिछले चौदह वर्षो से हिन्दी सिखाने की भी अपनी एक यात्रा रही है। अपनी इस यात्रा का ताना बाना अब अगली बार बुनूँगी