Monday, May 11, 2009

एक दुःखी दिन

आपकी प्रतीक्षा के लिए धन्यवाद.....
तो मैं यहाँ थी....
मेरा बेटा, जो अब तक दो साल का हो चुका था, हिन्दी अच्छी तरह समझ सकता था । अंग्रेजी की उसे अच्छी समझ नहीं थी। एक दिन मैं उसे एक पार्क में ले कर गई जहाँ दो और अमेरिकन बच्चे बालू में खेल रहे थे। मेरा बेटा, अकेला बच्चा घर में, उस दिन दूसरे बच्चों को देख मचल उठा और ताली बजा-बजा कर कूदने लगा। उन श्वेत बच्चों को मेरे बेटे का कूदना कुछ अटपटा सा लगा और उन्होंने उससे अंग्रेजी में कुछ बात करना चाहा किन्तु अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने के कारण मेरा बेटा कुछ उत्तर न दे सका और अपनी ही धुन में कूदता रहा। वह अमेरिकन बच्चे भी छोटे ही थे। उन्हें पता नहीं क्या समझ आया। उन्होंने झल्ला कर मेरे बेटे पर दनादन बालू फेंकी। मेरा मासूम बेटा तड़प कर रो पड़ा। मेरे मातृत्व को यह बिलकुल बरदाश्त न हुआ। मैंने झट उसे गोदी में उठा सीने से लगा लिया। बेटे की वेदना असह्य थी। एक अपराध भाव था कि यदि मैंने उसे अंग्रेजी सिखाई होती तो उसे शायद आज यह दिन न देखना पड़ता। सोंचा, बहुत हो गयी हिन्दी। जब रहना यहीं है तो हिन्दी सिखाने का क्या औचित्य। हिन्दी के प्रति लिया गया यह मेरा एक और संकल्प था।
वह दिन यूँ ही वेदना के साथ नहीं कटा। आगे की बात फिर अगली बार लिखूंगी......

2 comments:

  1. हुज़ूर आपका भी .....एहतिराम करता चलूं .....
    इधर से गुज़रा था, सोचा, सलाम करता चलूं ऽऽऽऽऽऽऽऽ

    ये मेरे ख्वाब की दुनिया नहीं सही, लेकिन
    अब आ गया हूं तो दो दिन क़याम करता चलूं
    -(बकौल मूल शायर)

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  2. हाँ...बात तो सही है। वेदना के साथ नहीं कटा यानी अंत अच्छा है तो फिर क्या हुआ...? प्रतीक्षा रहेगी

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