मेरा बेटा अब दो वर्ष का था, और हिन्दी अच्छी तरह समझ सकता था। समझता था यही क्या कम था मेरे लिए। घर में एक मैं ही तो थी जो सारे समय उससे हिन्दी में बातें किया करती थी। शहर में नए थे इसलिए जान पहचान भी कुछ खास नहीं थी। कोई हिन्दी भाषी दोस्त नहीं थे। हमारे शहर में कोई भारतीय दुकानें या भारतीय रेस्टोरेन्ट भी नहीं थे। हिन्दी फिल्में देखना भी नहीं होता था। उस समय टी. वी. पर भी कोई भारतीय चैनल नहीं आता था। इन सबके बावजूद अपने बेटे को हिन्दी सिखाने की चाह कुछ ऐसी थी मानो एक बियाबान जंगल में एक माँ अकेले अपने बेटे का हाथ पकड़े किसी अनजान पथ पर चली जा रही हो। यह रास्ता कैसे और कहाँ ले जाएगा इसका न ही कोई पता था न परवाह। एक धुन सी थी। साथ था तो बस एक संकल्प और एक दृढ़ विश्वास। पर इस विश्वास को टूटते भी ज्यादा समय नहीं लगा.......
काश आज समय होता तो आज ही उस घटना को भी लिखती। समय जितना करा ले उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए ऐसा सोंच कर आज यहीं रूकती हूँ। जल्दी ही फिर लौटूंगी.........
Thursday, May 7, 2009
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ओह, ओह... सच में, समय की तो सच में हर जगह मारामारी है। कोई बात नहीं, ऐसे ही लिखती रहिए। हम भी आते ही रहेंगे पढ़ने के लिए। कहानी रोचक बन रही है।
ReplyDeleteनिश्चय ही आगे का सब कुछ सुनने की उत्कंठा मन में भर गयी है । अगली प्रविष्टि की प्रतीक्षा में ।
ReplyDeleteसमय?देख लीजिए पूरे एक साल बाद आना हुआ आपके ब्लॉग की इस पोस्ट के पास. पर अच्छा लगा. उम्मीद है ऐसा बहुत कुछ पढ़ने को मिलेगा जो मेरे अपने स्कूल के बच्चों के लिए उपयोगी होगा.
ReplyDeleteप्यार
इंदु पुरी