Wednesday, May 27, 2009

वसंत है आता



दो हफ्ते पहले हमने अपनी हिन्दी कक्षा में एक गाना सिखाया था जो इस प्रकार है-

(गाने को पढ़ने से पहले बताना चाहूँगी कि हमारे यहाँ सितम्बर से जो वर्षा की झड़ी लगती है वह मई-जून तक चलती है। यह पहला हफ्ता है जब इस वर्ष सूरज पूरे हफ्ते चमक रहा है। पेड़ फूलों से लदे हुए हैं। चिड़ियाँ, तितलियाँ, पशु-पक्षी और हम सब आनन्दित हैं। स्कूलों में गर्मी की छुट्टियाँ कोई दो हफ्ते दूर हैं। बच्चे जब यह गाना गाते हैं तो बहुत ही मधुर लगता है। काश मुझे mp3 ब्लाग पर लगाना आता तो इस गाने का आनन्द दुगुना हो जाता। खैर, आज ऐसे ही...)

रंग-बिरंगे फूल खिलाता, सूरज चमकाता
वसंत है आता, वसंत है आता।

धूप खिलाता, चिड़ियाँ चहकाता।
हर मन को हर्षाता, बारिश दूर भगाता-
बोलो-बोलो क्या आता?
वसंत है आता, वसंत है आता।

तितलियाँ उड़ाता,
कीट-पतंगे, मधुमक्खी, सबको बौराता।
गर्मी की छुट्टियाँ है लाता-
बोलो-बोलो क्या आता?
वसंत है आता, वसंत है आता।

(रचना- रानी पात्रिक)

Tuesday, May 26, 2009

कल की पहेली का उत्तर

आज का दिन बहुत व्यस्त रहा पर पहेली का उत्तर तो देने आना ही था।

तो भाई उत्तर है- फ्रिस्बी (Frisbee)

बाकी कल- नमस्कार

Monday, May 25, 2009

पहेली


इस बार उत्तर नहीं देती हूँ। बाद में जोड़ दूंगी-

उड़न तश्तरी सी उड़ती हूँ,
बिन चाभी बिन इंजन।
सबका मन बहलाती फिरती,
स्टेशन से स्टेशन।

बूझो तो जानूं!!!

(रचनाकार- रानी पात्रिक)


उत्तर- फ्रिस्बी,Frisbee (यह उत्तर बाद में जोड़ा गया है)

Sunday, May 24, 2009

२४ मई २००९ कृष्णा तुलसी

आज हिन्दी कक्षा का दिन हमारी सरस्वती प्रार्थना से आरम्भ हुआ-

जय सरस्वती देवी नमो वरदे
जय विघ्न विमोचन बहु वरदे

कक्षा के आरम्भ में बोलचाल के क्रम में हमने “कल क्या किया तथा आज क्या किया” विषय पर बातचीत की। बच्चों ने बढ़-चढ़ कर अपनी बातें हिन्दी में सामने रखने का प्रयत्न किया, विषय थे --

-समुद्र किनारे गये
-कैम्पिंग गये
-हाइकिंग गये
-पौधों की नर्सरी गये

कृष्णा तुलसी


एक बच्चे ने हमें बताया कि उसका परिवार यहाँ फारमर्स मार्केट से कृष्णा तुलसी (काली तुलसी) खरीद कर लाया। हमारे लिए तो यह जैसे जंगल में मंगल जैसी खबर थी इसलिए मैंने भी अपने कई मित्र परिवारों में यह खबर बांटी। अब लगता है हम सभी अगले हफ्ते कृष्णा तुलसी खरीदने फारमर्स मार्केट जाएंगे।

बात ही बात में बीज की बात हुयी और हमने अपनी लिखी किताब “आओ बोएं बीज” पढ़ी। बच्चो ने हर लाइन को दोहराया। अनेक नये शब्द सीखे गये। खुरपी, हज़ारा विशेष रहे।

लो! फिर आ गई नाटक की बारी। लोमड़ी और गिलहरी आज के दिन अनुपस्थित थे इसलिए उनकी कमी बहुत खली । फिर भी बच्चों ने खूब मन लगा कर अभ्यास किया और बहुत मज़ा लिया। उनका मन तो भरता ही नहीं था तब इस शर्त पर आगे बढ़े कि यदि कक्षा के अन्त में समय बचा तो फिर से एक बार और अभ्यास किया जाएगा।

पिछले हफ्ते का गीत “वसंत है आता “ बार-बार गाया गया और एक नया गीत सीखा गया-
“रेलगाड़ी-रेलगाड़ी, लम्बी सी रेलगाड़ी।“

गृह कार्य दिखाने का लिए एक बार फिर होड़ थी। अब बच्चे अपने आप लिखने का जोश दिखा रहे हैं। सभी की लिखावटें बहुत ही सुन्दर और प्रयास प्रसंशनीय है।


"रतन का रोमांचक दिन" कहानी का एक चित्र-


कक्षा के अन्त में पठन-पाठन के अन्तरगत हमनें ए की मात्रा वाली रतन की कहानी पढ़ी। इस कहानी में लगभग उन सभी शब्दों का प्रयोग किया गया है जिन्हें ए की मात्रा सिखाते समय बताया गया था। बच्चे बखूबी पढ़ रहे हैं।

और, अरे ये क्या? कक्षा का सारा समय तो समाप्त हो गया। जल्दी-जल्दी लिखने के लिए वाला काम बांटा गया, और-
“धन्यवाद बॉय-बॉय नमस्ते, फिर मिलेंगे अगले हफ्ते” की धुन के साथ क्लास समाप्त हुआ।

नमस्कार।

Saturday, May 23, 2009

पहेलियाँ




समय-समय पर इसमें और पहेलियाँ जुड़ती रहेंगी।


1. साथ-साथ मैं चलती हूँ,
पर पकड़ नहीं सकते हो तुम।
अंधियारा छाते ही देखो,
गायब होती मैं गुमसुम।

-परछाईं
(रचनाकार- रानी पात्रिक)

Friday, May 22, 2009

बहादुर बच्चे


बच्चों में गृह कार्य दिखाने का जोश सदा रहता है। मुझे पता है इसके पीछे उनके अभिभावकों की तत्परता और सहयोग ही है जिसके लिए वो प्रशंसा के पात्र हैं वरना इस हिन्दी विहीन वातावरण में बच्चे कैसे हिन्दी में अपनी रूचि बनाए रख सकते हैं। । मेरे ह्रदय में उनके लिए विषेश स्थान है।


एक कविता बच्चों में हिन्दी के प्रति जोश जगाने के लिए-


हम बहादुर बच्चे हैं, नहीं किसी से डरते हैं।
हर दिन अपने सारे काम, जल्दी-जल्दी करते हैं।
कोई बोले या ना बोले, हम तो याद रखते हैं।
सुबह शाम हम हिन्दी का, अपना काम करते हैं।

रचना - रानी पात्रिक

Thursday, May 21, 2009

हमारी कक्षा, १६, मई २००९


रविवार हमारा हिन्दी क्लास का दिन है। बहुत दिनों बाद आज सूरज निकला था। मदर्स डे की छुट्टी के बाद आज सभी बच्चों में उत्साह था।

पहले हमने सरस्वती वंदना कर के अपनी विनम्र प्रार्थना उस परमपिता के श्री चरणों में रक्खी कि वह हमें हिन्दी सीखने और सिखाने का पथ प्रशस्त करें और फिर रूपहले धूप भरे दिन को मनाने के लिए वसंत का नया गाना गाया- रंग-बिरंगे फूल खिलाता
सूरज चमकाता, वसंत है आता

इसके बाद, हमने बच्चों में अति लोकप्रिय नाटक "नादान कौए" का अभ्यास किया। बच्चों में संवादों को याद करने तथा उनको बोलने की क्षमता देख कर मैं दंग थी। भावाभिव्यक्ति पर अभी और काम करना होगा।

पिछली हितोपदेश की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने ब्राह्मण और नाविक की "आदर्श शिक्षा" कहानी सुनीं। कहानी आधी होते-होते एक बच्चे को लगा कि वह कहानी सुनी हुयी है और उसने अपने टूटे-फूटे वाक्यों से बड़ी बहादुरी से बाकी की कहानी सुनाई। मैं उसे सराहती देखती-सुनती रही। एक नयी आशा का उदय हुआ कि शायद अगले वर्ष तक यह बच्चे ही कक्षा में कहानियाँ सुनाया करेंगे।

हर बार की तरह बच्चों में गृह-कार्य दिखाने के लिए उत्साह था। बच्चों को सराहने का समय। बच्चों में जोश भरने का समय।

ए की मात्रा वाले शब्दों और उनके अर्थों को हमने दुबारा जाना।

कक्षा के अन्त में एक पहेली-
साथ-साथ मैं चलती हूँ, पर पकड़ नहीं सकते हो तुम।
अंधियारा छाते ही देखो, गायब होती मैं गुमसुम।

Saturday, May 16, 2009

यू.एस.ए. में हिन्दी अक्षर

विदेश में हिन्दी सीखना और सिखाना, भारत में अंग्रेज़ी सीखने से कहीं अधिक कठिन होता है। भारत में हर जगह अंग्रेजी के बोर्ड, किताबें, समाचार पत्र आदि उपलब्ध होते हैं। चेतना आते ही बच्चा अंग्रेजी के अक्षर अपने आसपास देखने लगता है जब कि यहाँ विदेशों में हिन्दी का कोई माहौल ही नहीं होता। हिन्दी के अक्षर कहीं दिखते ही नहीं ।

एक दिन मैं एक प्रदर्शिनी देखने गयी। उस प्रदर्शनी में एक बड़ा सा पंडाल विभिन्न प्रकार के डायनासॉर का भी था। मैं उस पंडाल में घुसने ही वाली थी कि तभी मेरी दृष्टि प्रवेश द्वार के पास रक्खे कुछ लकड़ी के बक्सों पर पड़ी। उन पर हिन्दी के अक्षर लिखे हुए थे। कहीं न दिखने वाले हिन्दी के अक्षर इतने अपने लगे कि मैं डायनसॉर भूल कर अपने बच्चों को वो लकड़ी के बक्से दिखाने लगी। बच्चे भी उत्साहित हो उन अक्षरों को पढ़ने लगे। हमारे परिवार को बक्सों के पास देख कुछ और लोग उत्सुकता वश आए। कुछ लोग छोटे बच्चों को एक अजनबी भाषा पढ़ते देख आनन्द लेने लगे। उस छोटी सी भीड़ को देख कुछ और लोगों ने उत्सुकता वश अपने सिर उस भीड़ में घुसाए और देखते ही देखते वह छोटी सी भीड़ बड़ी होने लगी। मैं आनन्दित हो रही थी अपने बच्चों को देख जो बड़े गर्व के साथ लोगों को पढ़-पढ़ बता रहे थे कि उन बक्सों पर क्या लिखा था।

आप भी उत्सुक होंगे कि आखिर उन बक्सों पर ऐसा क्या विशेष लिखा था। उन पर लिखा था- भारत की स्वादिष्ट दार्जिलिंग चाय।

इतना अवश्य है- हमारा हिन्दी के प्रति उत्साह दूसरों में भी कहीं न कहीं उत्सुकता अवश्य जगाता है।

Tuesday, May 12, 2009

अन्तिम फ़ैसला

यह पोस्ट पिछली पोस्ट का हिस्सा है इसलिए इस पोस्ट में छिपे भाव को समझने के लिए पिछली पोस्ट अवश्य पढ़े।

मेरा दुःखी मन पार्क में अब और रूकने को तैयार नहीं था। इसलिए मैं सामने स्थित एक पब्लिक लाइब्रेरी में चली गयी। मुझे भारतीय वस्त्रों में देख एक लड़की मेरी तरफ आकर्षित हुयी। देखने में तो वह भारतीय नहीं लगती थी पर न जाने कितनी ही बातें वह मुझसे भारत के बारे में करती रही। आखिरकार मुझसे पूछे बिना रहा नहीं गया कि आखिर वह भारत के बारे में इतना कैसे जानती है। तब उसने बताया कि उसके पिता भारतीय (मुम्बई से) हैं और उसकी माँ ग्रीक। फिर यकायक उसने मुझसे पूछा कि मैं अपने बेटे को हिन्दी सिखा रही हूँ या नहीं। उसने अनजाने ही मेरी दुःखती रग पर हाथ रखा था। मेरा मन जो पहले ही भरा हुआ था अपने को रोक न सका और मैंने कुछ पल पहले बीती सारी घटना उससे कह सुनाई और यह भी बताया कि अब आगे मुझे अपने बेटे को हिन्दी सिखाने में कोई रूचि नहीं है।

वह बड़े ध्यान से मेरी सारी बात सुनती रही फिर बड़े अपनेपन से मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर बोली- “मैं तुम्हारा दुःख समझ सकती हूँ पर हिन्दी न सिखाने की गलती कभी ना करना। मेरे माता-पिता ने मुझे अपनी-अपनी भाषाएं नहीं सिखाईं जिसके कारण सारे पारिवारिक आयोजनों का हिस्सा हो कर भी मैं स्वयं को वहाँ एक अजनबी सा महसूस करती थी। वो लोग क्या बोलते और क्या हंसी-मज़ाक किया करते थे मैं कभी समझ ही नहीं सकी। मुझे जन्म तो मिला पर परिवार की अनुभूति कभी हुई ही नहीं।“

उसकी बातों से मैं सहम गई। हिन्दी न सिखाने के प्रति लिया गया मेरा फैसला अपनी सच्चाई का विभत्स रूप लिए सामने खड़ा दिखाई दिया। मैंने उसकी आँखों में देखा। उसकी हिन्दी न जानने की पीड़ा मेरी आज की घटना से मिली वेदना से कहीं अधिक थी। मैंने बिना हिन्दी सिखाए अपने बच्चों को भी उस लड़की की जगह खड़े पाया। वह लड़की ईश्वर द्वारा भेजा हुआ एक फ़रिशता सी लगी जिसने मुझे गलत राह पर चलते ही मुझे सम्हाल लिया था। मेरे दुःख के बादलों से आई बदली ने ऐसी बरसात की जिससे मेरी सारी पीड़ा धुल गयी। एक नया सूरज चमक रहा था। एक नया उत्साह था और इतना साफ था- “चाहें जितनी बाधाएं आएं हमें अपने बेटे को हिन्दी सिखाना ही है।“

Monday, May 11, 2009

एक दुःखी दिन

आपकी प्रतीक्षा के लिए धन्यवाद.....
तो मैं यहाँ थी....
मेरा बेटा, जो अब तक दो साल का हो चुका था, हिन्दी अच्छी तरह समझ सकता था । अंग्रेजी की उसे अच्छी समझ नहीं थी। एक दिन मैं उसे एक पार्क में ले कर गई जहाँ दो और अमेरिकन बच्चे बालू में खेल रहे थे। मेरा बेटा, अकेला बच्चा घर में, उस दिन दूसरे बच्चों को देख मचल उठा और ताली बजा-बजा कर कूदने लगा। उन श्वेत बच्चों को मेरे बेटे का कूदना कुछ अटपटा सा लगा और उन्होंने उससे अंग्रेजी में कुछ बात करना चाहा किन्तु अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने के कारण मेरा बेटा कुछ उत्तर न दे सका और अपनी ही धुन में कूदता रहा। वह अमेरिकन बच्चे भी छोटे ही थे। उन्हें पता नहीं क्या समझ आया। उन्होंने झल्ला कर मेरे बेटे पर दनादन बालू फेंकी। मेरा मासूम बेटा तड़प कर रो पड़ा। मेरे मातृत्व को यह बिलकुल बरदाश्त न हुआ। मैंने झट उसे गोदी में उठा सीने से लगा लिया। बेटे की वेदना असह्य थी। एक अपराध भाव था कि यदि मैंने उसे अंग्रेजी सिखाई होती तो उसे शायद आज यह दिन न देखना पड़ता। सोंचा, बहुत हो गयी हिन्दी। जब रहना यहीं है तो हिन्दी सिखाने का क्या औचित्य। हिन्दी के प्रति लिया गया यह मेरा एक और संकल्प था।
वह दिन यूँ ही वेदना के साथ नहीं कटा। आगे की बात फिर अगली बार लिखूंगी......

Thursday, May 7, 2009

एक संकल्प

मेरा बेटा अब दो वर्ष का था, और हिन्दी अच्छी तरह समझ सकता था। समझता था यही क्या कम था मेरे लिए। घर में एक मैं ही तो थी जो सारे समय उससे हिन्दी में बातें किया करती थी। शहर में नए थे इसलिए जान पहचान भी कुछ खास नहीं थी। कोई हिन्दी भाषी दोस्त नहीं थे। हमारे शहर में कोई भारतीय दुकानें या भारतीय रेस्टोरेन्ट भी नहीं थे। हिन्दी फिल्में देखना भी नहीं होता था। उस समय टी. वी. पर भी कोई भारतीय चैनल नहीं आता था। इन सबके बावजूद अपने बेटे को हिन्दी सिखाने की चाह कुछ ऐसी थी मानो एक बियाबान जंगल में एक माँ अकेले अपने बेटे का हाथ पकड़े किसी अनजान पथ पर चली जा रही हो। यह रास्ता कैसे और कहाँ ले जाएगा इसका न ही कोई पता था न परवाह। एक धुन सी थी। साथ था तो बस एक संकल्प और एक दृढ़ विश्वास। पर इस विश्वास को टूटते भी ज्यादा समय नहीं लगा.......

काश आज समय होता तो आज ही उस घटना को भी लिखती। समय जितना करा ले उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए ऐसा सोंच कर आज यहीं रूकती हूँ। जल्दी ही फिर लौटूंगी.........

Monday, May 4, 2009

सास से मिली सलाह

जब मेरा पहला बेटा पैदा हुआ तब मेरी सास ने, जो श्वेत अमेरिकन है, मुझे सलाह दी कि मैं अपने बेटे को हिन्दी अवश्य सिखाऊँ। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह स्वंम हिन्दी समझती नहीं फिर वह ऐसा क्यों चाहती हैं। तब उन्होने मुझे बताया कि उनकी नानी जो कनाडा के क्यूबेक प्रांत से थीं उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी। वह केवल फ्रैंच ही बोल समझ सकती थीं और भाषा के अभाव में उनका अपनी नानी के साथ कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं बन सका। अपने दिल के किसी कोने में वह उस रिश्ते की कमज़ोरी का दर्द छुपाए जी रही थीं। वह नहीं चाहती थीं कि भाषा के अभाव में, संवाद हीनता के कारण उनके पोते-पोतियाँ अपने नाना-नानी से और अपनी भारतीय जड़ों से जुड़ने से वंचित रह जाएं। उनकी पीड़ा को सुनने के बाद मैंने संकल्प लिया कि मैं अपने बच्चों को हरसंम्भव तरीके से हिन्दी अवश्य सिखाऊंगी किन्तु यह इतना सरल भी नहीं था।
अपने आगे की यात्रा फिर अगली बार.......

Friday, May 1, 2009

हिन्दी क्यों सिखाएँ

विदेशों में रहने वाले उत्तर भारतीय बहुत से परिवारों में एक यह प्रश्न उठते देखा है कि आखिर हम अपने बच्चों को हिन्दी क्यों सिखाएँ। वे माता पिता जो अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े और अपने परिवार और मित्रों के साथ अंग्रेज़ी बोलते हुए बड़े हुए उन्हें कभी-कभी हिन्दी सिखाने का महत्व समझ नहीं आता। मैं उन्हें दोष भी नहीं देती क्यों कि भारत में अंग्रेज़ी केवल भाषा का स्थान ही लेती है। संस्कृति हमारी फिर भी हिन्दुस्तानी ही रहती है। हिन्दी भाषा हिन्दुस्तानी (भारतीय) संस्कृति को सिखाने की दिशा में उठाया गया एक सशक्त कदम होता है।

यहाँ विदेशों में बच्चों को बड़े-छोटे का भाव, आदर और प्रेम का भाव सिखा पाना बड़ा कठिन होता है। यह हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। पाश्चात्य संस्कृति में इसका कोई विशेष महत्व नहीं। बच्चों के साथ उनके नाना-नानी या दादा-दादी भी अधिकतर नहीं होते जिससे वह अपने माता-पिता के साथ उनके आदर तथा प्रेम भाव को देख-सीख सकें। फिर यदि भाषा को देखें तो अंग्रेज़ी में केवल यू शब्द का प्रयोग बड़े छोटे सभी लोगों के लिए होता है। ऐसे में हिन्दी भाषा द्वारा बच्चों में भारतीय संस्कृति को सहज ही उतारा जा सकता है।

हिन्दी भाषा इतनी समृद्ध है जितनी कि भारतीय संस्कृति और यदि बच्चों को प्यार और जतन के साथ हिन्दी भाषा सिखाई जाए तो भारतीय संस्कृति स्वतः ही उनके चरित्र में उतरनी शुरु हो जाती है।

अगली बार अपने जीवन के कुछ अनुभव ले कर फिर आपसे बातचीत करने आऊँगी।